भारतीयता का पुनर्जागरण
(संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा)
भूमिका
भारत की संस्कृति एक अमर धारा है, जो सहस्त्रों वर्षों से मानव जीवन को दिशा देती आई है। यह संस्कृति केवल परंपरा नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत दर्शन है। इसमें वेदों की वाणी है, उपनिषदों का ज्ञान है, गीता का कर्मयोग है और लोकजीवन की सहजता है।
आज जब आधुनिकता की आँधी में मूल्य डगमगा रहे हैं, तब भारतीयता की आत्मा हमें पुनः स्मरण कराती है कि वास्तविक प्रगति केवल विज्ञान और भौतिकता में नहीं, बल्कि संस्कारों और आत्मबोध में निहित है।
यह पुस्तक पाठकों के सामने भारतीय संस्कृति की जड़ों से लेकर उसके आधुनिक स्वरूप तक का व्यापक चित्र प्रस्तुत करती है। इसमें जहाँ परंपराओं की महिमा है, वहीं आधुनिक चुनौतियों का विश्लेषण भी है; जहाँ परिवार, शिक्षा और नारी की भूमिका का विवेचन है, वहीं पाश्चात्य प्रभाव और उपभोक्तावाद का आकलन भी है।
पुस्तक का उद्देश्य किसी को अतीत में बाँधना नहीं, बल्कि उस अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान और भविष्य का मार्ग प्रशस्त करना है।
पाठक इस कृति के माध्यम से भारतीयता की गहराई, उसकी चेतना और उसके पुनर्जागरण का सजीव अनुभव करेंगे। यही इसकी भूमिका और प्रयोजन है।
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लेखक की कलम से संदेश
प्रिय पाठकों,
यह पुस्तक मेरी आत्मा के निकटतम विषय पर आधारित है—भारतीय संस्कृति और उसकी शाश्वत ज्योति। लिखते समय मैंने केवल शब्दों का ताना-बाना नहीं बुना, बल्कि अपने भीतर की अनुभूतियों को आपके सम्मुख रखा है।
मेरा विश्वास है कि भारतीयता कभी विलुप्त नहीं हो सकती। समय-समय पर उसने चुनौतियों का सामना किया है, परंतु हर बार राख से उठकर और अधिक उज्ज्वल रूप में प्रकट हुई है। यही पुनर्जागरण का अद्भुत सत्य है।
मैं इस पुस्तक के माध्यम से आज की पीढ़ी को यह संदेश देना चाहता हूँ कि आधुनिकीकरण का अर्थ नकल नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण आत्मसात है। हमें विज्ञान और तकनीक पश्चिम से अवश्य ग्रहण करनी चाहिए, परंतु आत्मा हमें अपनी संस्कृति से ही लेनी होगी। संस्कार, परिवार, नारी-शक्ति, योग और ज्ञान—यही हमारी वास्तविक पहचान हैं।
यदि इस पुस्तक का अध्ययन करने के बाद आपके मन में भारतीयता के प्रति गर्व और उसे बचाने का संकल्प जागे, तो मेरा लेखन सार्थक होगा।
एन आर ओमप्रकाश 'अथक'।
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अध्याय 1
भारतीय संस्कृति : परिभाषा, आधार और स्वरूप
भारत की संस्कृति केवल मिट्टी, भौगोलिक सीमाओं या प्राचीन परंपराओं का नाम नहीं है, बल्कि यह वह जीवन-शक्ति है जिसने सहस्त्रों वर्षों तक इस देश को एक सूत्र में बाँधकर रखा। जब-जब संसार मूल्यहीनता और अंधकार की ओर बढ़ा, तब-तब भारत ने अपने संस्कारों के दीपक से मार्गदर्शन दिया।
यदि रोम अपनी सेनाओं के वैभव पर गर्व करता है, ग्रीस अपनी कला पर और मिस्र अपने पिरामिडों पर, तो भारत अपने अध्यात्म और संस्कृति पर गर्व करता है। यहाँ का वास्तविक गौरव न तो राजमहलों में है, न ही स्वर्ण की खान में; भारत का गौरव है—उसकी संस्कृति, उसके अध्यात्म और उसकी ज्ञानपरंपरा में।
संस्कृति का अर्थ केवल रीति-रिवाज या बाहरी परंपराएँ नहीं है। यह वह मानसिकता है जो जीवन को पवित्र बनाती है। संस्कृत में कहा भी गया है—“संस्कृतो धातुः संस्कारे” अर्थात् वह शक्ति जो जीवन को संस्कारित करे, वही संस्कृति है। पश्चिम के महान इतिहासकार अर्नाल्ड टॉयनबी ने भी स्वीकार किया था कि “बीसवीं सदी के संकटों का समाधान यदि कहीं है, तो वह भारतीय संस्कृति और उसके अध्यात्मिक दर्शन में है।”
भारतीय संस्कृति ने सदैव सिखाया कि मनुष्य का उत्थान भोग से नहीं, योग से होता है; जीवन की सुंदरता बाहरी ऐश्वर्य में नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता में है।
सभ्यता और संस्कृति में गहरा अंतर है। सभ्यता यह बताती है कि हम कैसे जीते हैं, जबकि संस्कृति यह समझाती है कि हम क्यों जीते हैं।
सभ्यता भवनों, वस्त्रों, आहार और तकनीक में दिखाई देती है, जबकि संस्कृति विचारों, आचरण और मूल्यों में प्रकट होती है।
उदाहरण के लिए—
भोजन करना सभ्यता है, किंतु भोजन को प्रसाद मानकर ग्रहण करना संस्कृति है।
माता-पिता को बुज़ुर्ग मानना सभ्यता है, किंतु उन्हें देवतुल्य मानकर सेवा करना संस्कृति है।
स्त्री को समाज का सदस्य मानना सभ्यता है, किंतु उसे “मातृशक्ति” मानना संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति की आत्मा उसकी विशेषताओं में बसती है। यहाँ सम्पूर्ण विश्व को “वसुधैव कुटुम्बकम्” की दृष्टि से देखा गया है। यही कारण है कि भारत ने कभी किसी मत, पंथ या विश्वास का अपमान नहीं किया। बौद्ध, जैन, सिख, मुस्लिम और ईसाई—सभी को यहाँ स्थान मिला।
यह संस्कृति मानती है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है। सत्य, अहिंसा, दया, करुणा और संयम जैसे मूल्य यहाँ के जीवन का आधार हैं। यही संस्कृति धन और धर्म, भोग और योग, विज्ञान और अध्यात्म—सभी के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित करती है।
भारतीय संस्कृति का इतिहास वेदों से आरंभ होता है। ऋग्वेद में ज्ञान और भक्ति का स्वर गूँजता है; यजुर्वेद यज्ञ और कर्मकांड का विज्ञान सिखाता है; सामवेद संगीत का उद्गम है और अथर्ववेद औषध और लोककल्याण का भंडार है।
भगवद्गीता ने कर्मयोग का अद्वितीय संदेश दिया—“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
रामायण ने मर्यादा का आदर्श स्थापित किया, जहाँ राम केवल राजा नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।
महाभारत ने धर्म के जटिल प्रश्नों का समाधान किया और धर्म-अधर्म की सीमाएँ स्पष्ट कीं।
इतिहास में अनेक प्रेरक प्रसंग इस संस्कृति के उज्ज्वल स्वरूप को प्रकट करते हैं। सत्य के लिए राजपाट तक त्यागने वाले हरिश्चंद्र, माता-पिता की सेवा में जीवन अर्पित करने वाले श्रवणकुमार, तपस्या और सहनशीलता की प्रतिमा सीता, तथा करुणा का आदर्श प्रस्तुत करने वाले बुद्ध—ये सब भारत की आत्मा के आईने हैं।
यह संस्कृति हमें सिखाती है कि समृद्धि का मूल्य धन में नहीं, संतोष में है। विज्ञान मनुष्य को शक्ति देता है, किंतु संस्कृति उसे दिशा प्रदान करती है। धन से भरा घर सुखी नहीं होता, संस्कारों से भरा घर ही सुखी होता है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था—“यदि भारत की संस्कृति विलुप्त हो गई, तो यह पृथ्वी एक अंधकारमय मरुस्थल बन जाएगी।”
वास्तव में भारतीय संस्कृति केवल विचार नहीं, बल्कि आचरण है। यह हमें केवल जीना नहीं सिखाती, बल्कि कैसे जीना चाहिए यह भी बताती है। यही कारण है कि यदि पश्चिमी सभ्यता की धुरी भोग और उपभोग है, तो भारतीय संस्कृति की धुरी त्याग और आत्मसंयम है।
अध्याय 2 अगले भाग में.....